मध्य काल

महाराणा प्रताप कौन थे और उन्होंने अपने जीवन में क्या-क्या किया?

महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप भारतीय इतिहास की धरोहर में एक नाम जो हमेशा से शौर्य और साहस के प्रतीक के रूप में जाना जाता है। उनके नाम के ये दो शब्द ही उनकी योग्यता और उनके व्यक्तित्व की झलक दिखाते हैं। जिन्होंने वीरता, साहस और देशभक्ति के लिए अपने जीवन को समर्पित किया। इस लेख में, हम उनके जीवन, उनके युद्ध के क्षेत्रों, संघर्षों, और उनके योगदान के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करेंगे।

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बचपन और उनका परिवार

महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 को मेवाड़ के कुम्भलगढ़ किले में हुआ था। उनके पिता का नाम महाराणा उदय सिंह II था। वह मेवाड़ के राजा थे और उनकी माँ का नाम रानी जयवंता बाई था। जिन्होंने उन्हें संस्कार और संस्कृति में संपन्न किया। दरअसल,जयवंता बाई उनकी माँ होने के साथ-साथ उनकी पहली गुरु भी थीं|
जीवन के इस पहलू से ही उन्हें युद्ध और धर्म के महत्व का अनुभव हुआ| महाराणा प्रताप का पूरा नाम प्रताप सिंह सिसोदिया था, अतः वे सिसोदिया वंश के थे|

उन्हें विद्या और शस्त्र-शास्त्र की शिक्षा दी गई। वह बचपन से ही सबके साथ घुलनशील रहते थे| खाली समय में वो भीलों के पास जाकर समय बिताते, इसीलिए भील उन्हें कीका भी कहते थे| वह लुहारों के पास जाकर शस्त्र बनाना सीखते थे| उन्हें बचपन से ही हथियार बनने का शौक था|

जिस समय उनका जन्म हुआ, उस समय उनके पिता चित्तोड़ के खिलाफ युद्ध में थे| यह शुभ समाचार सुनकर पूरी सेना में और भी उमंग और शक्ति आ गयी और उन्होंने चित्तोड़ पर कब्ज़ा कर लिया|

उन्हें अपने धर्म और राष्ट्र से अधिक लगाव था| उनका चाहना था कि उनकी पूरी प्रजा भली-भांति रहे और खुशहाल रहे| उन्होंने बचपन से ही अपने आप को हर परिस्थिति में ढाल रखा था| उन्हें जरा भी घमंड नहीं था और था भी तो सिर्फ किसी के आगे सर न झुकाने का घमंड था|

महाराणा प्रताप की कितनी पत्नियाँ थीं?

इस बारे में स्पष्ट जानकारी किसी को नहीं है| कोई कहता है कि उनकी 14 पत्नियाँ थी, तो कोई कहता है 12 या 11 थीं| यहाँ उनकी 11 पत्नियों के नाम हैं|

  • रानी अजबवदे पवार
  • अमरबाई राठौर
  • शहमति बाई हाडा
  • अलमदेबाई चौहान
  • रत्नावती बाई परमार
  • लखाबाई 
  • जसोबाई चौहान
  • चंपाबाई जंथी
  • सोलनखिनीपुर बाई
  • फूलबाई राठौर
  • खीचर आशाबाई

राज्याभिषेक

उनके विचार और शक्ति को देखकर सबको लगता था कि महाराणा ही मेवार के राजा बनेंगे| जबकि, उनकी सौतेली माँ धीरबाईसा अपने बेटे को मेवाड़ का राणा बनाना चाहती थी, और ऐसा ही हुआ भी| इनके पिता अपनी पत्नी धीरबाईसा की बात अधिक मानते थे, इसलिए उनके कहने पर उन्होंने इनके पुत्र जगमाल को राजा घोषित कर दिया था| लेकिन, उनके इस फैसले से सब खुश नहीं थे| लेकिन उनको इससे कोई फर्क नहीं पड़ा|

वक्त गुजरा और 1572 आते-आते उनके पिता उदय सिंह का देहांत हो गया| उनके अंतिम संस्कार में अभी लोग उपस्थित हुए| लेकिन, राणा जगमाल अपना राज्याभिषेक करने में व्यस्त था और वहां नहीं आया| इस बात से नाराज सभी सरदारों ने गोमुन्दा की पहाड़ियों पर उनका राज्याभिषेक कर उन्हें राणा घोषित कर दिया| सरदार रावत कृष्णदास ने उनकी कमर में तलवार बाँधी|

यह बात जब जगमाल को पता चली, तो वह राजगडी छोड़कर अकबर की शरण में जा पंहुचा| फिर 28 फरबरी 1572 को वीर सिरोमणि का विधि पूर्वक राजतिलक कर दिया गया| उन्हें हिंदुआ सूरज भी कहा जाता था| वह शिव जी के बहुत बड़े भक्त थे|

जब वो अपना 72 किलो का भाला, 81 किलो का छाती का कवच और 10-10 किलो के जूते पहन कर निकलते थे, तो सभी दुश्मन दर से दूर हो जाते थे| उनका वजन 110 किलो और लम्बाई 7.5 फीट थी|

अकबर के साथ युद्ध

राज्याभिषेक के बाद उन्होंने कहा की जब तक में पूरे मेवाड़ को मुगलों से आजाद नहीं करा देता, तब तक में आराम से नहीं बैठूँगा| उन्होंने भीलों के गांवों का दोरा किया और उन्हें अपने साथ जोड़ा| भीलों को युद्ध की नीतियां सिखायीं| इसके साथ ही वह लुहारों के पास भी गये, और उन्हें हथियार बनने का काम दिया| उनके ये समाचार दिल्ली तक पहुँचने लगे थे|

उनके नाम से मुग़ल बादशाह अकबर भी काँप जाता था| अकबर ने बिना युद्ध किये उन्हें कई बार अपने साथ मिलने के लिए आमंत्रित किया| लेकिन उनका कहना था कि मैं जंगलों में रह सकता हु, लेकिन गुलाम बनकर नहीं रह सकता|

इसी के साथ अकबर ने अपने दरबार के चतुर राजनीतिकर जलाल खां को महाराणा के पास अधीनता का प्रस्ताव लेकर भेजा| लेकिन उन्होंने उसे वापस भेज दिया| इसके करीब एक साल बाद अकबर ने आमेर के राजा मानसिंह को उनके पास भेजा, इस समय वह उदयपुर में थे| उन्होंने उनका अतिथि की तरह स्वागत किया मगर उनके साथ भोजन करने नहीं बैठे और अपने पुत्र को भेज दिया| जब मानसिंह ने ये बात कही, तो उन्होंने जबाव दिया, कि जो मुगलों के साथ मिला हो मैं उसके साथ नहीं बैठ सकता|

हालाँकि, फिर मानसिंह ने भी भोजन नहीं किया, वह अन्न्देवता के नाम के कुछ चावल अपनी पगड़ी में रखकर घोड़े पर बैठ गया| जाते वक्त उसने कहा, अकबर के प्रस्ताव को ठुकराना बहुत बड़ी बेवकूफी है| उसने आगे कहा कि, मैं रणभूमि में तुम्हारा अभिमान चूर कर दूंगा| इसपर उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा “मैं प्रतीक्षा करूँगा”|

इसके बाद भी अकबर ने अपने तमाम दूत भेजे, मगर उन्होंने अधीनता स्वीकार नहीं की|

युद्ध

फिर अकबर बौखला गया और उसने अजमेर में एक बैठक बुलाई| यहाँ उसने मानसिंह को 1 लाख लोगों की मुग़ल सेना दी, और युद्ध के लिए भेजा| 3 अप्रैल 1976 को मानसिंह सेना के साथ ब्निकल पड़ा| करीब 2 महीने बाद, मानसिंह खमनोर नमक गाँव में पहुंचा| ये खबर भील सिपाहियों ने अपने महाराणा को भेज दी| परन्तु, वह तो कब से अपनी तलवार के साथ युद्ध का इंतजार कर रहे थे| वे जानते थे कि युद्ध जरूर होगा| फिर मानसिंह बनास की नदी के पास मोलेला गाँव में अपना डेरा डाला| इससे करीब 6 मील दूर लोसिंग गाँव में उन्होंने डेरा डाल दिया था|

मानसिंह की सेना में लगभग 1 लाख सिपाही थे, जिनमे मुग़ल और अन्य राजपूत शामिल थे| जबकि, उनकी सेना में भीलों और राजपूतों को मिलकर लगभग 20 हज़ार सैनिक ही थे| लेकिन दुश्मन की सेना मजबूत थी, तो महाराणा का सीना मजबूत था| वह बिलकुल घबराए नहीं|

18 जून 1576 को हल्दीघाटी का युद्ध प्रारंभ हुआ| कहा जाता है कि, जब मुग़ल सैनिकों ने उन्हें देखा तो वह डर गए थे| क्योंकि उन्होंने उन्हें पहली बार देखा था, उससे पहले उनके बारे में सिर्फ सुना था| 3 घंटे में ही महाराणा की सेना ने मुगलों की लाशों के ढेर लगा दिए थे| इससे घबराकर मुग़ल भागने लगे थे| ये देखकर सेनापति मेहतर खां ने जोर से कहा की अकबर एक विशाल सेना के साथ युद्ध में आ रहा है| यह सुनकर अकबर के सेनिक घबरा गए, उन्होंने सोचा की वापस भागेंगे तो अकबर मार देगा|

यहाँ उन्हें मानसिंह की वो बात याद आई, जब उसने कहा था कि तुझे रणभूमि में देखूंगा| ये याद करके वह मानसिंह को ढूंढने लगे| उन्होंने देखा तो वो हाथी पर बैठा हुआ था|

महाराणा प्रताप का प्यारा घोड़ा: चेतक

महाराणा प्रताप

ये देखकर उन्होंने अपने घोड़े के पैरों को हाथी के माथे पर रख दिया, और मानसिंह पर अपना भाला चलाया, लेकिन वह बच गया और उसका महावत मारा गया| लेकिन हाथी के सूंड में जो तलवार लटकी हुई थी, उससे उनके प्रिय घोड़े चेतक का पैर कट गया| चेतक हलके नीले से रंग का बहुत ही सुन्दर घोड़ा था| जिसे वह अपने पुत्र की तरह प्यार करते थे| इसके साथ ही महाराणा जी के पैर में भी गोली लग चुकी थी और अनेक घाव थे|

तब उनसे किसी ने कहा कि आपको और चेतक को इलाज़ की जरूरत है| तब उन्होंने युद्ध को पहाड़ियों की ओर मोड़ा और उधर भीलों ने मोर्चा संभाल लिया| और वो चेतक को लेकर पहाड़ियों की पर निकल पड़े| यहाँ चेतक ने घायल होने के बावजूद भी, लगभग 26 फीट गहरी खाई को कूदकर पार कर दिया| लेकिन घायल चेतक बलीचा नामक गाँव में गिरकर बेहोश हो गया|

तभी उनका पीछा करते हुए उनका छोटा भाई शक्ति सिंह भी वहां आ गया, जो मुग़ल सेना की ओर से लड़ रहा था|

तब उन्होंने अपने भाई से कहा “सीना खुला मार भाला, तुम गोद गुलामी तिकण लगे|मै भारत माँ ते कह दूंगा, तेरे पूत दामण में बिकण लगे”||

यह सुनकर शक्ति रोने लगा और उनके पैरों में जा गिरा|

अंत में जब मुगल सेना हरने लगी, तब मानसिंह ने सेनिकों को वापस अजमेर चलने को कह दिया| जब वह वहां खली हाथ गया, तो अकबर ने उसपर बहुत गुस्सा किया और उसे 3 महीने के लिए दरबार से निकल दिया|

महाराणा प्रताप का हाथी

चेतक घोड़े के साथ ही उनका एक हाथी भी था, जिसका नाम था रामप्रसाद| रामप्रसाद की हल्दी घाटी के युद्ध में अहम् भूमिका थी| उसने मुग़ल सेना के लगभग 5 हाथी और कई घोड़ों को मर गिराया था|

ये सब जब अकबर ने सुना था, तभी से उसका पूरा ध्यान रामप्रसाद पर था| उसने 12 हाथियों का चक्रव्यूह बनाकर रामप्रसाद को पकड़ लिया था| अकबर ने रामप्रसाद का नाम बदलकर पीर रख दिया था| रामप्रसाद इतना वफादार हाथी था, कि अकबर के यहाँ जाने के बाद उसने 28 दिन तक कुछ नहीं खाया पिया, और अपना शरीर त्याग दिया था|

ये देखकर अकबर दंग रह गया था और उसने कहा था, कि जिसके हाथी ने मेरे आगे सर नहीं झुकाया, वह खुद मेरे आगे सिर कैसे झुका देगा|

हल्दीघाटी के युद्ध के बाद

हल्दीघाटी के युद्ध के लगभग 4 महीने बाद ही अकबर ने फिर 1577 में शाहाबाद खान को कुम्भलगढ़ पर आक्रमण करने भेजा| इतने कम समय में दोबारा युद्ध कर पाना उनकी सेना के लिए संभव नहीं था| तो उन्होंने किले को त्याग दिया था| लेकिन वो हार मानने वाले नहीं थे, उन्होंने कुछ महीने बाद फिर से सेना तैयार की और किले पर कब्ज़ा कर लिया|

इसके बाद उन्होंने विशाल सेना बनाकर अकबर पर हमला करने की रणनीति बनाई| मगर उसके लिए धन की जरूरत थी| तो वे धन के लिए गुजरात की ओर निकल गए| इस दौरान उन्होंने शाहबाज खान को 2 बार हराया था| गुजरात पहुंचकर उन्होंने चूलिया नमक गाँव में अपना डेरा लगाया| यहाँ उनकी मुलाकात महादान्वीर भामाशाह से हुई| भामाशाह ने उन्हें पूरे 25 लाख की सहायता दी थी|

बस यही से असली संघर्ष शुरू हुआ, सन 1582 में वे भारी सेना के साथ दिवेर के दर्रों में मुगलों के थानों पर टूट पड़े| उन्होंने आदेश दिया कि किले को हर तरफ से घेर लो| इसी दौरान उनके पुत्र अमरसिंह ने अकबर के चाचा सुल्तान खां को भाले से घोड़े सहित फाड़ दिया| यहाँ करीब 36 हज़ार मुगलों ने उनके सामने आत्म समर्पण कर दिया था| जीत के बाद दिवेर के किले पर केसरिया ध्वज लहरा दिया गया|

इस हार से अकबर बौखला गया था| उसने 1584 में जगन्नाथ कछवाहा को उन्हें को बंदी बनने के लिए भे दिया| लेकिन वह हार गया और उनसे माफ़ी मांगकर वापिस लौट गया| इसके बाद उन्होंने कमलवीर का किला जीता|

फिर उन्होंने 1585 में चावंड को जीता और उसे अपनी राजधानी घोषित कर दिया था| फिर उन्होंने एक-एक करके मुगलों के 32 किले जीते| इससे अकबर की नींद हराम हो गयी थी|अकबर ने स्वीकार किया कि महाराणा प्रताप को नहीं हरा सकता|

युद्ध के बाद

युद्धों से निपटने के बाद उन्होंने लगभग 12 साल तक बहुत अच्छा शासन किया| और अपने राज्य की तरक्की की| फिर 1597 में शिकार के दौरान उनकी मृत्यु हो गयी थी|

जाने मौर्य वंश के बारे में| click

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